छैला संदु पर बनी फिल्म को लेकर लेखक-फिल्मकार में तकरार
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मंगल सिंह मुंडा बोले, बिना उनसे पूछे उनके उपन्यास पर बना दी
गई फिल्म, भेजेंगे लिगल नोटिस जबकि निर्माता और निर्देशक का
लिखित अनुम...
8 वर्ष पहले
26 टिप्पणियाँ:
मनुष्य समाज का जो क़बीला ,जो जाति जो धर्म सत्ता में आ जाता है वह समाज की श्रेष्ठता के पैमाने अपनी श्रेष्ठता के आधार पर ही बना देता है [यह श्रेष्ठता होती भी है या नहीं यह अलग प्रश्न है] यानी सत्ता आये हुए की शक्ती ही व्यवस्था और कानून हो जाया करती है,
सशंकित होना क्या जायज़ नहीं कि क्या वास्तव में आज ऐसा हो रहा है !!
गर हो रहा है तो मुखर विरोध होना चाहिए.
और जो ऐसा समझ रहे है, इसके खतरे से वाकिफ हैं, विरोध कर रहे हैं.हां !स्वर मद्धिम अवश्य है ,लेकिन एक जुटता है.
यदि नहीं हो रहा है तो आओ साथियो इस शेर को याद करो:
उसी के फ़रोग-ए-हुस्न से झमके है सब में नूर
शमा-ए-हरम हो या दिया सोमनाथ का !
यह मत भूलिए कि हम हिन्दू हैं और हम हर धर्म का आदर करते हैं और यह सहिष्णुता ही हमारी पहचान है जो हमें औरों से अलग पहचान देती है !"
han ji sahi kaha.
ham musalman hi cruel hote hain.janwar hote hain.kyonki sirf hami janwar khate hain.
aur uski haddi se uske chamde se bane aap jute pahante hain.chappal pahante hain.uski hadi se bane utpad ka dheron istemal karte hian.
@talib
यही मनोविज्ञान हमारी समस्या है,..हिन्दू-मुस्लिम एकता का फलसफा समझाने वाले अंत में अपनें तथाकथित धर्म की विशिष्टता बताने का मोह नहीं छोड़ पाते.
aapne jo aarop lagaye.uski janch karni hogi.
धार्मिक पुनरुथान से गौरव भी है और खतरा भी, क्योंकि पुनरुथान कभी कभी धर्मान्धता को जन्म देता है.
और आज हर कहीं धर्म के नाम पर धर्मान्धता का शोर है और इस शोर में दोनों ओर का इंसान घुट रहा है.
tottaly agree !! nice post.
संघ के लोगों को इस बात पर भी आपत्ति रही है कि मुसलामानों की इतनी आबादी है उन्हें अल्पसंख्यक क्यों कहा जाए.
ठीक है भाइयो मत कहो लेकिन जब संघ की राजीनीतिक इकाई भाजपा की सरकार थी तो संशोधन कर इस शब्द को क्यों नहीं हटा दिया गया.
और आज भी भाजपा में अल्पसंख्यक सेल क्यों है ! क्यों नहीं उसे भंग कर दिया जाता !
AAPAS ME PREM KARO DESH PREMIYON !!!1
WAH KYA BAT HAI..SHAMA E HARAM HO YA DIYA SOMNATH KA !!1
उसी के फ़रोग-ए-हुस्न से झमके है सब में नूर
शमा-ए-हरम हो या दिया सोमनाथ का !
ख़तरा है बटमारों को
मग़रिब के बाज़ारों को
चोरों को,मक्कारों को
खतरे में इस्लाम नहीं
एक विशेष धर्म को ही या एक विशेष मानसिकता से संचालित एक संस्था के दर्शन को ही गर देश मान लिया जाएगा तो यह फासीवादी प्रव्रृति है.और इसका विरोध खुलकर कोई नहीं कर रहा है.हाँ ऐसी ही फितरत के साथ आज इस्लाम के स्वयंभू ठीकेदार पैदा हो गये हैं तो हर कहीं सोग और विरोध का हंगामा है बरपा !!
बन्धु! आप अपना टेम्पलेट ठीक कीजिए। बैकग्राउंड अक्षरों के उपर आ जा रहा है। ब्राउजर - क्रोम।
@ शमा-ए-हरम हो या दिया सोमनाथ का !
है थाली भी एक और दूध भी एक
कोई शक्कर मिलाए कोई खटाई डुबाए
अजीब शै है उसके नूर की बेरुखी
शमा जलती रही है हरम में हमेशा
टूटते कंगूरों से हैं मलबे बरसते
बुझता रहा है दिया सोमनाथ का!
उम्दा पोस्ट-सार्थक लेखन के लिए शुभकामनाएं
आपकी पोस्ट वार्ता पर भी है
अच्छी कोशिश है.
sunder lekh shahroj ji badhaiyan...
शहरोज़ भाई,
आपकी आमद हामारे दर पर बादेनसीम की तरह है... हमारी सम्वेदना के स्वर एक सम्वाद को जन्म देने की शुरुआत है... लेकिन यहाँ कोई बच के निकल जाता है, कोई देखकर अनदेखा करता है तो कोई पॉलिटिकल्ली और डिप्लोमैटिकल्ली जवाब देकर कन्नी काट जाता है... शुक्रिया आपकी साफगोई और आज़ाद्ख़याली का.. जुड़े रहें!!
@ शहरोज़ साहब ! आदमी समूह में रहता है और व्यवस्था में जीता है। व्यवस्था में ख़राबी की वजह से आदमी और समाज दुखी रहता है। वह दुख से मुक्ति का हरसंभव उपाय करता है लेकिन उसकी मुसीबतें पहले से ज़्यादा और ज़्यादा होती रहती हैं। उसे याद ही नहीं रहता कि जिस ईश्वर ने उसे जीवन दिया है उसने उसे व्यवस्था भी दी है जो जीवन के हरेक पहलू में काम देती है। राजनेता और धर्मगुरू भी अपने-अपने राजनीतिक और आध्यात्मिक दर्शनों में लोगों को उलझाये और भरमाये रहते हैं लेकिन उन्हें धर्म और दर्शन के बीच मौजूद बुनियादी फ़र्क़ तक नहीं समझाते और जो समझाना चाहते हैं उन्हें अपने हितों का दुश्मन देखकर जनता को उनके खि़लाफ़ खड़ा करने में सारा ज़ोर लगा देते हैं। पहले भी यही हुआ और मनु महाराज के काल जल प्रलय आई,आज भी यही हो रहा है और अग्नि प्रलय हर ओर हो रही है। निराश मानवता ईश्वर और उसकी दण्ड व्यवस्था के बारे में सशंकित है लेकिन अगर यहां न्याय नहीं है तो फिर न्याय कहीं और तो ज़रूर ही है। जो न्याय पूरी मानव जाति को अपेक्षित है वह उसे ज़रूर मिलेगा चाहे उसके लिये उस मालिक को फ़ना हो चुकी सारी मानव जाति को नये सिरे से जीवित करना पड़े। वह जीवनदान का दिन ही न्याय दिवस है, जो चाहे मान ले और जो चाहे इन्कार कर दे। लेकिन किसी के इन्कार से हक़ीक़त बदला नहीं करती। सृष्टि के आदि से , वेदों से लेकर कुरआन तक दोबारा जन्म, आवागमन नहीं बल्कि केवल दूसरे जन्म का जो ज़िक्र तत्वदर्शियों ने किया है, वह होकर रहेगा। जो ज़ालिम अपने दबदबे के चलते यहां सज़ा से बच निकलते हैं, वहां धर लिये जाएंगे। धर्म यही कहता है और मैं इसे मानता हूं। यही मानना आदमी को आशावादी बनाता है, जीवन के मौजूदा कष्ट झेलना आसान बनाता है।
http://vedquran.blogspot.com/2010/08/is-it-fair-anwer-jamal.html?showComment=1281208752298
मैं भारत की गंगा-जमुनी तहजीब की हिमायती हूँ. मुझे ये लगता है कि हिन्दुस्तान का आम आदमी सहिष्णु ही होता है, चाहे वो हिन्दू हो, मुसलमान हो या सिख या ईसाई हो और मैं ये भी मानती हूँ कि किसी एक धर्म का प्रचार हमेशा दूसरे से नफ़रत की कीमत पर ही होता है. वैसे तो संविधान ने सभी को अपने धर्म का प्रचार करने की स्वतंत्रता दे रखी है, पर फिर भी मैं बात-बात पर धर्म की दुहाई को बिल्कुल उचित नहीं समझती.
ये बिल्कुल सच है कि सदियों से जिस धर्म के लोग सत्ता में रहे हैं, उन्होंने दूसरे धर्मों पर कहर ढाए हैं, पर अब तो लोकतंत्र है, और देश की सरकार धर्मनिरपेक्ष. इसलिए ये सब नहीं होना चाहिए.
... सभी व्यक्ति आपस में मानवीय व्यवहार करें तथा मानवीय संवेदनाओं को अपने अपने जहन में रखें तो ज्यादा हितकर होगा !!!
उम्दा पोस्ट.
यही मनोविज्ञान हमारी समस्या है,..हिन्दू-मुस्लिम एकता का फलसफा समझाने वाले अंत में अपनें तथाकथित धर्म की विशिष्टता बताने का मोह नहीं छोड़ पाते.
....कभी भी, कहीं भी, एकता तभी संभव है जब हम एक दूसरे के प्रति सम्मान का भाव रखें और पुरानी कड़ुवाहटों को भूल कर, एक दूसरे की गलतियाँ गिनाने के बजाय, उन्हें दिल से माफ कर दें.
....मैं वाकई ऐसी पोस्टों से कन्नी काट कर निकल जाना पसंद करता हूँ क्योंकि ऐसी पोस्टों में एक पूर्वाग्रह झलकता है कि मेरे विचार ही श्रेष्ठ हैं.
यदि कभी कोई इमानदार कोशिश दिखती भी है तो कहीं से कोई अपना कमेंट ले कर अनायास उलझ जाता है.
...और मैं यह भी जानता हूँ कि एक अकेला किसी की मानसिकता नहीं बदल सकता.
बहुत ही बेहतरीन लेख लिखा है शरोज़ भाई.... एक-एक बात शत-प्रतिशत सही.
ब्लॉग्गिंग में आने से पहले मेरा नजरिया धर्म के प्रति बहुत अलग सा था परन्तु अब बहुत उदासीन....
सच पूछिए तो अब जीवन में धर्म एक हस्तक्षेप की तरह लगने लगा है....
यहाँ भी तो तथाकथित अभिजात्य वर्ग है ...पहला मौका मिलते ही धर्म का झंडा लेकर खड़े हो जाते हैं....
बहुत अच्छी प्रस्तुति आपकी...
आभार..
achchha lekh hai. chintan bhi disha dene valaa. mera to dharm insaniyat hi hai. pooja-fooja bhi nahi kartaa. manav ke utthaan ke liye kuchh kartaa hu to lagataa hai aaradhanaa kar raha hu. badhai jagaran k liye.
शहरोज जी आप मेरे ब्लॉग पर आए टिप्पणी की मुझे खुशी हुई। मतभेद होना तो स्वाभाविक है हर किसी में। पर में किसी से मनभेद नहीं रखता....मैं इस बात का हमेशा विरोधी रहा हूं कि कोई किसी को अल्पसंख्यक कहे। चाहे ये भाजपा हो या कांग्रेस..दोनो ही पार्टियों ने सिर्फ राजनीति ही की है। हमारी विडंबना ये है कि हम किसी तीसरे विकल्प को चुनते ही नहीं हैं....ईमानदारों की उदासिनता ही हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है जिस कारण आज दोनो ही धर्म के कट्टर लोग ये हालत पैदा कर रहे हैं। आपके लेखों में मुझे एक हिंदुस्तानी का दर्द मिलता है इस कारण में आपकी पोस्टों को पढ़ता हूं और टिप्पणी देता हूं। आपकी जीवन में निराशा से भरी पोस्ट का दर्द भी मैने समझा तभी आपके बहाने एक पोस्ट की थी। मैं चाहता था कि आप और हम एक दूसरे के पोस्ट पर आएं। मैने आपका इंतजार भी किया। मुझे दुख है कि आपने किसी अन्य पोस्ट पर मेरी टिप्पणी को गलत समझा। मैंरी नजर में देश में सिर्फ दो तरह के ही लोग हैं .और वो हैं अमीर और गरीब.....दोनो ही राजनीतिक विचारधाराओं का सौ प्रतिशत समर्थन नहीं करता हूं। स्वाभाव से मैं हिंदुस्तानी कम्यूनिस्ट हूं...पर कत्लेआम की परिभाषा का सख्त विरोधी...मैने विरोध गांधीजी से सिखा है और जान देने की ताकत शहीदे आजम से....जैसा मैने एक जगह औऱ लिखा है.....आप औऱ हम जैसे लोगों को एकजुट होकर देश और सिर्फ देश के लिए काम करना चाहिए। धर्म हमारे लिए पूरी तरह से व्यक्तिगत होना चाहिए। मूसीबत तब शुरु होती है जब लोग एक दुसरे की पद्धति के खिलाफ बोलने लगते हैं औऱ अपने को सही कहने लगते हैं। मैं हर बार कहता हूं कि अल्पसंख्यक क्यों है कोई। 23 करोड़ लोग अल्पसंख्यक नहीं हैं। अल्पसंख्यक हैं अमीर औऱ नेता.....मगर सारी ताकत...खाने के सारे साधन इनके अधिकार में हैं.....अस्सी फीसदी साधनों पर सिर्फ बीस फीसदी लोगो का आधिपत्य....ये अन्याय है....मानवता के खिलाफ है। मानवता किसी भी धर्म से कहीं आगे है.....कहीं बड़ी है..धर्म व्यक्तिगत है....पर इसे देश इससे आगे होना चाहिए। आप पर लिखी मेरी पोस्ट पढ़िएगा जरुर दिल से। आप में ही मैं औऱ मेरे मे ही आप हैं..। हम देश के लाखो युवाओं की दास्तां हैं.....। कुछ बकवास टिप्पणी भी मिली मुझे। मैने अनवर साहब से भी पूछा था की शहरोज भाई का नाम आने पर ही आप मेरी पोस्ट पर आए आखिर इसे मैं क्या समझू....इसे अपने से जोड़कर नहीं देखिएगा....
मेरे लिए आप उन लाखों भारतीय युवाओं की एक मिसाल है जो हैरान है कि वो क्या चाहता है ये कोई नहीं पूछता....बस मंदिर, मस्जिद..उसपर लादता है। जो सबसे बड़े मंदिर देश को बनाना चाहता है, उसकी उस इच्छा पर तुषारपात ही होता आ रहा है पिछले 63 साल से।
क्षमा कीजिएगा मुझे काफी तकलीफ हुई की आपने भी बातों को राजनीतिक नजरिए से देखा या समझा।
बहुत खूब कविता दुनिया
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