तेरी शर्ट हमसे ज्यादा सफ़ेद क्यों की तर्ज़ पर मीनारों और गुम्बदों को ऊँचा करने और सड़कों पर नमाज़ व आरती करने की आज होड़ लगी है.धार्मिक होने का प्रदर्शन खूब हो रहा है जबकि ऐसी धार्मिकता हमें धर्मान्धता की ओर घसीट ले जा रही है.जो खतरनाक है.देश की गंगा-जमनी संस्कृति को इससे काफी चोट पहुँच रही है.सर्व-धर्म समभाव हमारी पहचान है.सदियों पुरानी इस रिवायत को हम यूँही खो जाने नहीं देंगे. इस मंच के मार्फ़त हमारा मकसद परस्पर एकता के समान बिदुओं पर विचार करना है.अपेक्षित सहयोग मिलेगा, विशवास है. मतभेदों का भी यहाँ स्वागत है.वाद-ववाद से ही तो संवाद बनता है.





सतीश सक्सेना की क़लम से : दिल से कहो !

on मंगलवार, 26 अगस्त 2008

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शाहजहांपुर जिले के गाँव गढिया रंगी में १५ दिसम्बर १९५४ को जन्मे

सतीश सक्सेना पेशे से सिविल इंजिनियर हैं.फिलहाल केन्द्र में सरकारी मुलाजिम हैं।
समाज की सेवा करना इनकी फितरत में शामिल है तो साहित्य इनका शौक .लेकिन इनका साहित्यिक लेखन भी जन-सेवा की ही श्रेणी में शुमार होता है। कुछ ग़ज़ल कुछ गीत !,मेरे गीत ! aur लाइट ले यार ! के मार्फ़त आप इनसे मुलाक़ात कर सकते हैं।
अपने बारे में उनका कहना है:
अपने बारे में लिखना बेहद मुश्किल कार्य है ....जब से होश संभाला, इस दुनिया में अपने आप को अकेला पाया ! माता, पिता,भाई कैसे होते हैं यह सिर्फ़ दोस्तों या अन्य रिश्तेदारों के घर ही देखा है! इतना छोटा था की उनका चेहरा भी याद नही ! शायद इसलिए दुनिया के लिए अधिक संवेदनशील तथा भावुक हूँ ! कोई भी व्यक्ति अपने आप को अकेला महसूस न करे, इस ध्येय की पूर्ति के लिए कुछ भी, कहीं भी और किसी समय भी तैयार रहता हूँ ! बाकी, बड़ा हुआ तो दुनिया ने बहुत कुछ सिखा दिया ! मगर अकेला होने से, संघर्ष क्षमता अपने आप ही आयी और विद्रोही स्वभाव , अन्याय से लड़ने की इच्छा, लोगों की मदद करने में सुख मिलने लगा निरीहता, किसी से कुछ मांगना, झूठ बोलना बिल्कुल पसंद नही !
- जिनका कोई न हो ऐसे लोगों की मदद के लिए एक स्माल ट्रस्ट आंचल का होल्डिंग ट्रस्टी एवं चेयरमैन होने के नाते लोगों की सेवा करने के मौके मिलते रहते है !
-नियमित रक्तदान करना अच्छा लगता है, मृत्यु उपरांत शरीर के सारे अंग दान कर रखे हैं!
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हिन्दुस्तान की एक बच्ची ने एक शानदार लेख " हम एक हैं,तो एक होने से डरते क्यों हैं? " लिखा है, जिसे पढ़ कर दिल वाह वाह कर उठा ! मुझे याद है, वर्षों पहले मैं बिभिन्न आयोजनों एवं ट्रेड यूनियन मूवेमेंट्स के अवसर पर एक नारा देता रहा हूँ - आवाज दो - हम एक हैं ! अब यह हमारी अपनी लड़की कह रही है कि अगर हम एक हैं तो मिलते क्यों नही, पहचानते क्यों नही और जानने की कोशिश क्यों नहीं करते ! एक तीखा उलाहना हमें, अपने बड़े भाइयों को, याद दिलाने की कोशिश के लिए ! फिर यह सच्चाई मानने में डर क्यों की हम ने कभी अपने इन छोटे भाइयों के बारे में जानने की कोशिश नही की, जो अखबार एवं अन्य साधन बताते रहे, वही सच मान लिया गया ! अगर हमें किसी के बारे में जानने की उत्कंठा है तो पहले उसकी संस्कार और संस्कृति समझनी और जाननी पड़ेगी ! यह सच है की बहुसंख्यकों के स्कूल में साथ पढने से ये बच्चे हिंदू संस्कार एवं त्योहारों के बारे में काफी जानते और समझाते है, मगर मुझे नहीं लगता की हमारे बच्चे भी मुस्लिम त्योहारों या उनके महापुरुषों के बारे में जानते होंगे !

अपने अहसास और तकलीफ को बयां करना बेहद मुश्किल काम होता है और उससे भी अधिक मुश्किल होता है दूसरे की तकलीफ समझना और महसूस करना !यह हर एक के बस की बात ही नही! इस तकलीफ को समझाने के लिए साझा सरोकार चाहिए, एक जज्बा चाहिए जिसमे अपने घर से भेद भावः मिटाने की तमन्ना हो ! और यह काम हम लेखकों का होना चाहिए की वे इमानदारी के साथ सच को सच कहने की हिम्मत कर सकें ! और शुरुआत करें ईमानदारी के साथ गलती को महसूस करने की, जहाँ तक बात पहल करने की है, बड़े होने के नाते पहल हमें ही करनी चाहिए !


यह सच है की अधिकतर लोगो को मुस्लिम त्योहारों के बारे में कुछ नहीं मालूम और सीखने का प्रयत्न भी करें तो आपसी झिझक और दोनों पक्षों का तंगदिल नजरिया खुल कर बात ही नहीं करने देता ! आज भी इतने वर्षों के बाद कस्बों और शहरों में मोहल्ले बँटे हुए हैं, दुकाने, रिक्शे, और तांगे तक बंटे हुए हैं और हम स्वतंत्रता दिवस पर कह रहे हैं कि आवाज़ दो हम एक हैं ! और वह भी सिर्फ़ एक दिन कहने के लिए !

बहुत काम करना है इस विषय पर, और यह काम करने के लिए पहल करनी चाहिए लेखक वर्ग को ! जो ईमान दार हों वो आगे आकर हमारे घरों में गहरी जड़ जमाये इस बबूल ब्रक्ष को उखाड़ने का प्रयत्न करें ! तो देश ऋणी रहेगा अपने इन लेखक पुत्रों पर कि चलो कुछ तो अच्छा लिखा गया और अपने घर के लिए लिखा गया ! शहरोज का लेख साझा-सरोकार saajha-sarokaar पर छपे " है राम के वजूद पे हिन्दुस्तां को नाज़ " हो या रख्शंदा का " हम एक हैं,तो एक होने से डरते क्यों हैं? " हर एक लेख में एक ही चीत्कार है कि हम तुम्हारे हैं हमें अपना मानो ! हम हिन्दुस्तानी हैं, हिन्दुस्तानी रहेंगे और हिन्दुस्तानी मरेंगे ! हम चाहते हैं कि हमारे त्यौहार एक साथ मनाये जायें ! इसकी हर लाइन कह रही है कि श्री राम का आदर हम आपसे अधिक करते हैं और आइये आपको हम अपने इमाम्स एवं हज़रत साहेब के बारे में सब कुछ बताएं ! आइये हम आपको इस्लाम के अदब और कायदा के बारे में बताएं और हमारा यकीन करें की आप को बहुत अच्छा लगेगा !
और मेरा यकीन है कि एक बार आपको यह सब जानने के बाद लगने लगेगा कि इतनी भारी ग़लतफ़हमी और वह भी इतने लंबे समय से, कैसे चली आ रही थी ! और कारण जानने की कोई जरूरत भी नही है, जरूरत है सिर्फ़ ग़लतफ़हमी मिटाने की और दिमाग से सुने सुनाये,पढ़े पढाये अक्स मिटाने की ! जरूरत है अविश्वास छोड़ कर फैले हुए हाथों की और बढ़ कर उन्हें आगोश में लेने की !

है राम के वजूद पे हिन्दुस्तां को नाज़

on सोमवार, 18 अगस्त 2008

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है राम के वजूद पर हिन्दुस्तां को नाज़
अहले नज़र समझते हैं इसको ईमाम-हिंद
तलवार का धनी था, शुजाअत में फ़र्द था
पाकीज़गी में जोश, मुहब्बत में फ़र्द था।

इकबाल की इक नज़्म से

हम में से सारे लोग इस वितंडा से वाकिफ ज़रूर होंगे कि विभाजन में उर्दू शायर इकबाल की भी भूमिका रही है।
भले हमारे होंठ उनकी अमर रचना सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा गाते-गाते न थकते हों। लेकिन नानक, राम और भी कई भारतीय अमर vइभुतियों पर अपनी ज़बान में इस कवि ने जो श्रद्धांजली अर्पित की , इस सम्बन्ध में अधिकाँश लोग अनजान होंगे।

जन्नत का निशाँ: हिन्दुस्तां

इसी तरह हम ये तो खूब जानते हैं की मुस्लिम शासकों ने भयंकर अत्याचार किए मानो दूसरे धर्म के शासक अतिशय विनम्र होते हों.ये जान ने की कोशिश नहीं करते कि कितने muslim बादशाहों ने मठ और मंदिरों के लिए ज़मीने दीं थीं। मुस्लिम राज-सत्ता के ही काल में देश की पहली सेकुलर ज़बान हिन्दुस्तानी , तब उसे रेख्ता/लश्करी आदि कहा जाता था.आज ये प्यारी ज़बान उर्दू और हिन्दी के नाम से अपने-अपने नए संस्कार में परवरिश पा रही है।
इस पहली भाषा का पहला कवि हुआ है अमीर खुसरू
इस सूफी-कवि का जन्म १२५३ ई में हुआ था और १३४५ ई में इनकी मौत हो गई ।
ये शा
यर
अपने मुल्क से बेपनाह मुहब्बत करता था.इश्क़ की दीवानगी में हिन्दुस्तां के फूलों, झरनों, परिंदों और सूफियों -संतों पर केद्रित उसने फ़ारसी में कव-रचना भी की.मैं पाने मुल्क से क्यों मुहब्बत करता हूँ के सवाल में वोह ख़ुद कहते हैं:
यह मेरा वतन-अज़ीज़ है और पैगम्बर-इस्लाम की इक हदीस है की रो से अपने वतन से मुहब्बत हमारे अक़ीदे ईमान /आस्था ) का हिस्सा है। दूसरी वजह यह है की हिन्दुस्तां के ऊपर ही जन्नत है।
आप आगे लिखते हैं कि जब आदम ने खुदा के हुक्म की उदूली की तो उन्हें धरती पर भेज दिया गया.और वो जगह हिन्दुस्तां ही है.उन्हें हिन्दुस्तां इसलिए भेज दिया गया कि जलवायु और प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता और उपलब्धता के नज़रिए से हिन्दुस्तां अरब और दूसरे मुल्कों की धरती की अपेक्षा अधिक आरामदेह था।
आप देश को का जन्नत का निशाँ कहते थे। उन्हों ने इक परिंदे का भी भी ज़िक्र किया है जो जन्नत में होता है और वही परिंदा भारत में भी पाया जाता है। उन्हीं ने अपने पक्ष में इक और दलील दी है कि ईसायिओं के मुताबिक आदम को सांप ने बहकाया था और आदम के साथ सांप को भी धरती पर भेज दिया गया था। आप कहते हैं कि भारत में और मुल्कों की बनिस्बत सांप भी ज्यादा होते हैं।
उन्हें मलाल भी रहा कि अगर हिन्दुस्तानी फलों और फूलों का नाम विदेशी ज़बान में होता तो ये विश्व-विख्यात होते।









आज़ादी पर श्रद्धा की बानगी

on गुरुवार, 14 अगस्त 2008

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विदिशा में जन्म और शिक्षा-दीक्षा भी यहीं। दूर-दूर तक साहित्य और अदब-ऐ-चमन की रानायिओं से वास्ता नहीं .लेकिन सिंगापूर पहुंचकर आपने अपनी कलम से जन्मजात शायरा होने की सनद हासिल कर ली.electrononics में m.sc. श्रद्धा वहाँ इक स्कूल में हिन्दी पढाती हैं और अरबी की विधा ग़ज़ल में शायरी करती हैं।
ये ऐसी शख्सियत की हामिल हैं जिनकी रगों में देश की गंगा-जमनी तहज़ीब खूबतर होती है.इनकी ज़बान न अरबी-फ़ारसी की तरफ़दार है और न ही तत्सम को गले लगाती है.आप छंदों और उरूज़ के मामले में भी सदाशयी दृष्टि अपनाती हैं.आप उर्दू की बहरों के अनुशासन को तो अपनाती ही हैं , हिन्दी के मात्रिक छंदों से भी गुरेज़ नहीं करतीं।
आज हम आज़ादी का JASHN मानते हैं।
लेकिन किन शर्तों पर ये दिन नसीब हुआ।
कुर्बानियां कितनी हुईं।
और आख़िर बटवारे का दर्द।
अब आप श्रद्धा से ही रूबरू हों।
-शहरोज़
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मौसम बदला, रुत बदली है, ऐसे नही दिलशाद हुए
हिंदू - मुस्लिम एक हुए जब, तब जाकर आज़ाद हुए

कितने अल्हड़ सपने थे जो दॉर–ए- सहर में टूट गये
कितने हँसमुख चेहरे रोए, कितने घर बर्बाद हुए

नहीं थी कोई जाति पाती, न ही दिलों में बँटवारा
हिंदू मुस्लिम, सिख, ईसाई, धरम अभी ईजाद हुए

कुर्बानी शामिल उनकी भी, क्यूँ आज पराए कहलाए
कालिख इक चेहरे की "क़ौम" पे, हम इतने जल्लाद हुए

हाथ बढ़ाओ , गले लगाओ, भेद भाव अब जाने दो
नमन हमारा हो उनको, जो भारत की बुनियाद हुए

वेद कुरआन : बहुत कुछ समान

on मंगलवार, 12 अगस्त 2008



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अल्लाह शब्द इलाह(पूज्य) से
बना है.ऋग्वेद १-१-२ में भी ईल शब्द का प्रयोग ईश्वर के लिए हुआ है.ईल का अर्थ भी पूज्यनीय होता है.
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जो मुसलमान किसी गैर-मुस्लिम नागरिक पर ज़ुल्म करेगा , उसके हक को मारेगा या उसकी चीज़ ज़बरदस्ती ले लेगा, तो मैं खुदा की अदालत में मुसलमान के विरुद्ध पेश होने वाले मुक़दमे में उस गैर-मुस्लिम नागरिक का वकील बनकर खड़ा हो जाऊँगा ।
--पैगम्बर हज़रत मुहम्मद स.
अगर कोई इसका ख्वाब देखता है कि सिर्फ़ उसीका धर्म बचा रह जाएगा और दूसरे धर्म नष्ट हो जायेंगे तो मैं दिल की गहराई से उस पर तरस ही खा सकता हूँ और यही बता सकता हूँ कि जल्द ही सभी धर्मों के ध्वजों पर, विरोध के बावजूद यह अंकित होगा कि लड़ाई नहीं दूसरों की सहायता, वैमनस्य नहीं बल्कि सद्भाव और शान्ति।
--विवेकानंद
युगद्रष्टा विवेकानंद दरअसल सत्य से पूरी तरह परिचित थे। वे धर्म के मूल को जानते थे। मनुष्यत्व के प्रति आध्यात्मिकता, इसके अर्थ का उन्हें ज्ञान था । वे सच्चे अर्थों में ज्ञानी थे। वह जानते थे की वेद और कुरआन दोनों एकेश्वरवाद की शिक्षा देते हैं ।
वेद का उद्घोष है:
इक सदविप्रा:बहुधा वदन्ति
कुरआन का फ़रमान है:
वहदहु ला शरीक
आज हम धर्म के यथार्थ पक्ष से बिल्कुल अंजान हैं और अज्ञानतावश धर्म-सम्प्रदाय के नाम पर देश-समाज में वैमनस्य, नफरत और हिंसा को प्रश्रय दे रहे हैं।
इस्लाम के कथित जिहादियों को अपने प्यारे नबी का ऊपर दिया क़ोल ज़रूर पढ़ना चाहिए और जेहन-नशीं कर लेना चाहिए जो दीन का परचम बेक़सूर बच्चों , महिलाहों और पुरुषों की लाशों पर गाड़ना चाहते हैं।
सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ हैं वेद और पुराण जिसकी शिक्षा है : वसुधव कुटुम्बकम सर्व सुखिन
कुरआन कहती है: अलहम्दो लील-लाहे रब्बिल-आलमीन यानी तमाम प्रशंसाएं अल्लाह के लिए है जो सम्पूर्ण संसार का पालनेवाला है. वहीँ ऋग्वेद में लिखा है:माहि देवस्य सवितु :पारिष्टति: अर्थात इस संसार के बनने वाले के लिए प्रशंसा है।
कुरआन में दर्ज है:अर्रहमान इर्रहीम (जो पालनहार और कृपालु है )
ऋग्वेद में अंकित है:वसुर्द्यमान :(जो देनेवाला और कृपालु है )
कुरआन आगे कहती है:एह्दिनस सिरातल मुस्तक़ीम (सच्चे मार्ग का पथ-प्रदर्शक बन)
तो ऋग्वेद हमें बताता है:नय सुपथा राये अस्मान
विवेकानद ने कहा था , वेद की ओर लौटो
लेकिन आज हम न वेद की ओर हैं , न ही कुर्रान और दूसरे धार्मिक ग्रंथों की ओर।
हाँ अपने मतलब की चीज़ें उसमें से निकालकर उसका ग़लत-सलत अर्थ मनमाफिक लगाने की कुचेष्टा हम अवश्य करते हैं.और झूठे दंभ में जीते हैं।
नोट:पोस्ट में फॉण्ट के कारण वर्तनी में हुई अशुद्धिओं को सुधारकर पढ़ें।
समय-समय पर और भी वांछित बिन्दुओं पर यहाँ चर्चा करने का इरादा है.
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