तेरी शर्ट हमसे ज्यादा सफ़ेद क्यों की तर्ज़ पर मीनारों और गुम्बदों को ऊँचा करने और सड़कों पर नमाज़ व आरती करने की आज होड़ लगी है.धार्मिक होने का प्रदर्शन खूब हो रहा है जबकि ऐसी धार्मिकता हमें धर्मान्धता की ओर घसीट ले जा रही है.जो खतरनाक है.देश की गंगा-जमनी संस्कृति को इससे काफी चोट पहुँच रही है.सर्व-धर्म समभाव हमारी पहचान है.सदियों पुरानी इस रिवायत को हम यूँही खो जाने नहीं देंगे. इस मंच के मार्फ़त हमारा मकसद परस्पर एकता के समान बिदुओं पर विचार करना है.अपेक्षित सहयोग मिलेगा, विशवास है. मतभेदों का भी यहाँ स्वागत है.वाद-ववाद से ही तो संवाद बनता है.





शमा-ए-हरम हो या दिया सोमनाथ का !

on शनिवार, 7 अगस्त 2010

-->

संवेदना के स्वर कितने आंतरिक 

 

 

इस मंच से ज़रा लग हट कर कुछ बात कहने की धृष्टता  कर रहा हूँ, क्षमा करेंगे.किंचित सफल रहा तो यूँ साझा-सरोकार के पग बढे ,समझूंगा.उद्दिग्नता रही है, द्वन्द रहा है.पढता रहा हूँ कहीं कुछ लिख भी आया.यानी टिपया आया.लेकिन आज संवेदना के स्वर की पोस्ट हिन्दू मुस्लिम भाई-भाई  की इन पंक्तियों ने झिंझोड़ दिया.

 

 

उन्होंने लिखा है कि मनीषियों का तर्क है कि "यह मत भूलिए कि हम हिन्दू हैं और हम हर धर्म का आदर करते हैं और यह सहिष्णुता ही हमारी पहचान है जो हमें औरों से अलग पहचान देती है!"

यही मनोविज्ञान हमारी समस्या है,..हिन्दू-मुस्लिम एकता का फलसफा समझाने वाले अंत में अपनें तथाकथित धर्म की विशिष्टता बताने का मोह नहीं छोड़ पाते.

 

 

पढ़ कर क्या हुआ कि लिखता गया.संभवत इस द्वन्द से मुक्ति का समय था यह.

मैं  हमेशा विश्व के ख्यात चिन्तक विवेकानंद  की बात दुहराता रहा हूँ कि जो दूसरों से घृणा करता है, वह खुद पतीत हुए बिना नहीं रहता.

 

लेकिन साथियो !! इसे समझे कौन !!

विवेकानंद आगे लिखते हैं कि धार्मिक पुनरुथान से गौरव भी है और खतरा भी, क्योंकि पुनरुथान कभी कभी धर्मान्धता को जन्म देता है.

 

और आज हर कहीं धर्म के नाम पर धर्मान्धता का शोर है और इस शोर में दोनों ओर  का इंसान घुट रहा है.

 

 

ब्लॉग जगत में विगत दो सालों से एक धर्म विशेष के लोगों या उनके धर्म के विरुद्ध खूब विषवमन  होता रहा है.एक बंधु तो बजाप्ता इस शुभ कार्य के लिए लोगों से चंदा तक मांगते हैं

लेकिन  इनके विरुद्ध कहीं कोई विरोध के स्वर सुनाई नहीं पड़े.कहीं किसी उदारमना प्रबुद्ध ने कोई पोस्ट नहीं लिखी.

लेकिन इन दिनों वह तबका जो कल तक खामोश था उन्हीं के लहजे में जवाब देने लगा तो त्राहिमाम!! त्राहिमाम !!!

 

मैं ऐसी धर्मान्धता के जिद तक विरोधी हूँ.

 

एक विशेष धर्म को ही या एक विशेष मानसिकता से संचालित एक संस्था के दर्शन को ही गर देश मान लिया जाएगा तो यह फासीवादी प्रव्रृति  है.और इसका विरोध खुलकर कोई नहीं कर रहा है.

 

हाँ ऐसी ही फितरत के साथ आज इस्लाम के स्वयंभू ठीकेदार पैदा हो गये हैं तो हर कहीं  सोग और विरोध का हंगामा है बरपा !!

 

 

ऐसे लोगों के लिए मैं कहूँगा:

[हबीब जालिब के शब्दों में]

 

 

ख़तरा है बटमारों को

मग़रिब के बाज़ारों को

चोरों को,मक्कारों को

खतरे में इस्लाम नहीं

 

और हाँ संघ के लोगों को इस बात पर भी आपत्ति रही है कि मुसलमानों की इतनी आबादी है उन्हें अल्पसंख्यक क्यों कहा जाए.

ठीक है भाइयो मत कहो लेकिन जब संघ की राजीनीतिक इकाई भाजपा की सरकार थी तो संशोधन कर इस शब्द को क्यों नहीं हटा दिया गया.

और आज भी भाजपा में अल्पसंख्यक सेल क्यों है ! क्यों नहीं उसे भंग कर दिया जाता !

 

लेकिन साथियो सियासत की बातों में मत पड़ो यह सियासी लोग हैं.

जब काग्रेस कुछ करती है तो उसे तुष्टिकरण कहा जाता है और वही कम भाजपा करती है तो देश हित!!

भाजपा ने हज में मुसलमानों को सुविधा दी तब तुष्टिकरण नहीं हुआ.ऐसी मिसालें कई हैं.

 

यह सच है कि यहाँ हिन्दुओं की आबादी बहुसंख्यक है..लेकिन देश का संविधान सेकुलर है समाजवादी है, अब जैसा भी है.

और हमारे साथियो को यह ध्यान रखना चाहिए, जैसा सी ई जेड ने कहा  था:

 

मनुष्य समाज का जो क़बीला ,जो जाति जो धर्म सत्ता में आ जाता है वह समाज की श्रेष्ठता के पैमाने अपनी श्रेष्ठता के आधार पर ही बना देता है [यह श्रेष्ठता होती भी है या नहीं यह अलग प्रश्न है] यानी सत्ता आये हुए की शक्ती ही व्यवस्था और कानून हो जाया करती है.

 

 

सशंकित होना क्या जायज़ नहीं कि क्या वास्तव में आज ऐसा हो रहा है !!

 

गर हो रहा है तो मुखर विरोध होना चाहिए. और जो ऐसा समझ रहे है, इसके खतरे  से वाकिफ हैं, विरोध कर रहे हैं.हां !स्वर मद्धिम अवश्य है ,लेकिन एक जुटता है.

 

यदि नहीं हो रहा है तो आओ साथियो मीर के इस शेर को याद करो:

 

उसी के फ़रोग-ए-हुस्न से झमके है सब में नूर

शमा-ए-हरम हो या दिया सोमनाथ का !

 

 

 

 

संवेदना के स्वर की पोस्ट हिन्दू मुस्लिम भाई-भाई

 

 

संस्कृत शब्द है नमाज़

on गुरुवार, 11 मार्च 2010

नमाज़ से  अखंड भारत का प्रमाण







ढेरों मुल्ला उठ खड़े हो सकते हैं कि मैं क्या बकवास कर रहा हूँ.  इस जानकारी ने अद्भुत ढंग से चकित किया.निसंदेह आप भी हुए होंगे.वैदिक शब्द है नमाज़ .है न चकित करने वाली बात.अरबी में नमाज़ के लिए सलात या सलाः का इस्तेमाल होता है. कुर'आन में भी यही शब्द आया है.क्यों कि जब किसी मस्जिद में मुआज्ज़िन अज़ान पुकार रहा होता है तो कहता है: हय्या अलस्स  सलात!  यानी आओ नमाज़ की तरफ! इस्लाम के जानकारों यानी आलिमों , धर्म-विद्वानों  से जब पूछा गया कि नमाज़ शब्द कहाँ से आया. उन्हों ने बताया कि यह फ़ारसी का शब्द हो सकता है.लेकिन जब फ़ारसी की तरफ निगाह दौड़ाई तो जानकार हैरत हुई कि वहाँ इस शब्द का मूल ही नहीं है.यानी जिस तरह संस्कृत में हर शब्द की एक मूल धातु होती है, ऐसा ही फ़ारसी या अरबी में होती है.फ़ारसी में मूल को मसदर कहते हैं.अगर मान  लें कि नमाज़ का मसदर नम हो तो नम का अर्थ होता है गीला या भीगा हुआ.आपने मुहावरा सुना होगा नम आँखें.इस से नमाज़ का अर्थ नहीं निकलता.
विश्व की एक मात्र भाषा है संस्कृत जहां नम शब्द से नमाज़ का अर्थ निकलता है.नम संस्कृत में सर झुकाने को कहते हैं.और अज वैदिक शब्द है जिसका अर्थ है अजन्मा यानी जिसने दूसरे को जन्म दिया किन्तु स्वयं अजन्मा है.इस प्रकार नम+अज के संधि से नमाज़ बना जिसका अर्थ हुआ अजन्मे को नमन.इस तरह इस शब्द की उत्पत्ति हुई.इरान जाकर फ़ारसी में यह नमाज़ हो गया.ध्यान रहे कि इस्लाम का परिचय भारत में पैगम्बर हज़रत मोहम्मद के जीवनकाल में ही हो गया था.अरब के मुस्लिम कारोबारियों का दक्षिण भारत में आना-जाना शुरू हो गया था.जबकि इरान में इस्लाम बहुत बाद में ख़लीफ़ा उमर के समय पहुंचा था.
भारत के शुरूआती नव-मुस्लिमों ने सलात को नमाज कहना शुरू कर दिया .यह सातवीं सदी का समय है.भारत यानी तब के अखंड भारत से मेरा आशय है.क्योंकि सिर्फ पाकिस्तान, बँगला देश ,नेपाल या श्री लंका में ही इस शब्द का चलन नहीं है.बल्कि पश्चिम में अफगानिस्तान, इरान, मध्य एशियाई मुल्कों तज़ाकिस्तान. कज़ाकिस्तान आदी और पूर्व में म्यांमार , इंडोनेशिया,मलेशिया,थाईलैंड और कोरिया वगैरह  में भी सलात की बजाय नमाज़ का प्रचलन है.इन सभी देशों का सम्बन्ध भारत से होना बताया जाता है.

इस प्रकार नमाज़ से भी अखंड भारत का प्रमाण साबित हो जाता है.

होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह

on शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010



कहा जाता है कि हज़रत मोहम्मद [स] को आज के ही दिन  लगभग साढ़े चौदा सौ साल पहले अल्लाह ने पूरे संसार के लिए रहमत बनाकर भेजा था.इस दिन को लोग ईद-मिलादुन-नबी कहते हैं. इस रहमत का ही नतीजा है कि हिन्दुस्तान का एक सूफी-संत बुल्ले-शाह पंजाब में जाकर होली खेलता है और नाम अल्लाह और उसके रसूल का लेता है.यही हमारी सदियों पुरानी साझी-संस्कृति है.फेस बुक की दीवार पर पत्रकार अस्मा सलीम ने इसे उर्दू में चस्पां किया है.उनके आभार के साथ हम यहाँ मूल के साथ देवनागरी में लिप्यान्तरण दे रहे हैं.






होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह

नाम नबी की रतन चढी, बूँद पडी इल्लल्लाह
रंग-रंगीली उही खिलावे, जो सखी होवे फ़ना-फी-अल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह

अलस्तु बिरब्बिकुम पीतम बोले, सभ सखियाँ ने घूंघट खोले
क़ालू बला ही यूँ कर बोले, ला-इलाहा-इल्लल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह

नह्नो-अकरब की बंसी बजायी, मन अरफ़ा नफ्सहू की कूक सुनायी
फसुम-वजहिल्लाह की धूम मचाई, विच दरबार रसूल-अल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह

हाथ जोड़ कर पाऊँ पडूँगी आजिज़ होंकर बिनी करुँगी
झगडा कर भर झोली लूंगी, नूर मोहम्मद सल्लल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह

फ़ज अज्कुरनी होरी बताऊँ , वाश्करुली पीया को रिझाऊं
ऐसे पिया के मैं बल जाऊं, कैसा पिया सुब्हान-अल्लाह 
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह

सिबगतुल्लाह की भर पिचकारी, अल्लाहुस-समद पिया मुंह पर मारी
नूर नबी [स] डा हक से जारी, नूर मोहम्मद सल्लल्लाह
बुला शाह दी धूम मची है, ला-इलाहा-इल्लल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह

खान शास्त्री का राष्ट्रीय साम्प्रदायिक सौहार्द्र

on सोमवार, 25 जनवरी 2010

जब दिल में हो महब्बत , रूह लबरेज़ जज़्बाए-इंसानियत से .तो आपका कारवां चलता ही रहेगा , बढ़ता ही रहेगा.हम बात कर रहे हैं,58 वर्षीय डॉ.मोहम्मद हनीफ खान शास्त्री  की जो  संस्कृत के माने हुए विद्वान हैं, उनकी सर्वाधिक प्रसिध्द पुस्तकें हैं: मोहनगीता, गीता और कुरान में सामंजस्य, वेद और कुरान से महामंत्र गायत्री और सुरा फातिहा, वेदों में मानवाधिकार और मेलजोल।  1991 में महामंत्र गायत्री और सुरा फातिहा का अर्थ प्रयोग एवं महात्म्य की दृष्टि से तुलनात्मक अध्ययन के लिए पीएचडी की उपाधि आपको  प्रदान की गई थी। 

 डॉ. शास्त्री को  मानवाधिकार और समाज कल्याण केन्द्र, राजस्थान के साथ  वर्ष 2009 के राष्ट्रीय साम्प्रदायिक सौहार्द्र पुरस्कार के लिए चुना गया है। उपराष्ट्रपति की अध्यक्षता में जूरी ने साम्प्रदायिक सौहार्द्र बढ़ाने में उनके योगदान को देखते हुए उनका का चयन किया है।

राष्ट्रीय साम्प्रदायिक सौहार्द्र पुरस्कारों की स्थापना राष्ट्रीय साम्प्रदायिक सौहार्द्र संस्थान जो भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा साम्प्रदायिक  सौहार्द्र बढाने और राष्ट्रीयता के लिए स्थापित एक स्वायत्तशासी संगठन है, के द्वारा 1966 में की गई थी। 


शास्स्री जी को हार्दिक मुबारक बाद!!



Related Posts with Thumbnails

मेरे और ठिकाने

चिट्ठाजगत रफ़्तार Hindi Blogs. Com - हिन्दी चिट्ठों की जीवनधारा Blogvani.com