तेरी शर्ट हमसे ज्यादा सफ़ेद क्यों की तर्ज़ पर मीनारों और गुम्बदों को ऊँचा करने और सड़कों पर नमाज़ व आरती करने की आज होड़ लगी है.धार्मिक होने का प्रदर्शन खूब हो रहा है जबकि ऐसी धार्मिकता हमें धर्मान्धता की ओर घसीट ले जा रही है.जो खतरनाक है.देश की गंगा-जमनी संस्कृति को इससे काफी चोट पहुँच रही है.सर्व-धर्म समभाव हमारी पहचान है.सदियों पुरानी इस रिवायत को हम यूँही खो जाने नहीं देंगे. इस मंच के मार्फ़त हमारा मकसद परस्पर एकता के समान बिदुओं पर विचार करना है.अपेक्षित सहयोग मिलेगा, विशवास है. मतभेदों का भी यहाँ स्वागत है.वाद-ववाद से ही तो संवाद बनता है.





तू भी हिंदू है कहाँ, मैं भी मुसलमान कहाँ

on बुधवार, 12 नवंबर 2008

महिना हो आया.अब वक़्त ने मुहलत दी.यूं तंत्र ने मुझे रोकने की शपथ ले रखी थी.आज जनेयू के भाई रागिब के मेल ने इस पोस्ट के लिए विवश कर दिया.उन्होंने secularjnu का लिंक भेजा है.जब क्लीक किया तो इस नज़्म पर नज़र जा टिकी.भाई रागिब फोन पर अनुपलब्ध हैं अभी.वरना उन्हें मुबारकबाद ज़रूर देता.
बहरहाल इस नज़्म का लुत्फ़ आप ज़रूर लें.ये लुत्फ़ चिंतन तू की मांग करता है. -
सं
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तू भी हिंदू है कहाँ, मैं भी मुसलमान कहाँ


राम के भक्त कहाँ, बन्दा-ए- रहमान कहाँ
तू भी हिंदू है कहाँ, मैं भी मुसलमान कहाँ

तेरे हाथों में भी त्रिशूल है गीता की जगह
मेरे हाथों में भी तलवार है कुरआन कहाँ

तू मुझे दोष दे, मैं तुझ पे लगाऊँ इल्जाम
ऐसे आलम में भला अम्न का इम्कान कहाँ

आज तो मन्दिरो मस्जिद में लहू बहता है
पानीपत और पलासी के वो मैदान कहाँ

कर्फ्यू शहर में आसानी से लग सकता है
सर छुपा लेने को फुटपाथ पे इंसान कहाँ

किसी मस्जिद का है गुम्बद, कि कलश मन्दिर का
इक थके-हारे परिंदे को ये पहचान कहाँ

पहले इस मुल्क के बच्चों को खिलाओ खाना
फिर बताना उन्हें पैदा हुए भगवान कहाँ

साभार: शकील हसन शम्सी

24 टिप्पणियाँ:

Dr. Ashok Kumar Mishra ने कहा…

behtareen nazm

राहुल सि‍द्धार्थ ने कहा…

बहुत खूब.गुरूपर्व की बधाई

राज भाटिय़ा ने कहा…

सियासत नफ़रतों का ज़ख्म भरने ही नहीं देती
जहाँ भरने पे आता है तो मक्खी बैठ जाती है
आप की नजर यह मुन्ब्बर राणा साहब का शेर.
बहुत सुन्दर लिखा है आप ने

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

समाज के ठेकेदार सब अच्छी, भली और कीमती चीजों को कब्जा लेते हैं, धर्म को भी। और फिर उस का अपने लिए इस्तेमाल करते हैं। बहुत सच्ची और अच्छी रचना है।

Dr. Amar Jyoti ने कहा…

एक बेहतरीन ग़ज़ल पढ़वाने के लिये हार्दिक आभार।

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत बढिया गजल प्रेषित की है।आभर।

drdhabhai ने कहा…

बहुत खूब.....याद करने लायक

sushant jha ने कहा…

बहुत अच्छा...
इस दुनिया में तुम्हारे जैसे इंसान कहां...

डॉ .अनुराग ने कहा…

वाकई बेहतरीन नज़्म है........

रंजना ने कहा…

सौ फीसदी सही !
बहुत ही खूबसूरती से आपने बयां किया.....बहुत बहुत सुंदर...

Unknown ने कहा…

बहुत खूब.

प्रेम करो सबसे, नफरत न करो किसी से.

सागर नाहर ने कहा…

बहुत सुन्दर नज़्म.. दिल को छू लेने वाली। बधाई इस सुन्दर गज़ल के लिए, बढ़िया होता आप हमें इस गज़ल को सुनवाते।
॥दस्तक॥
गीतों की महफिल
तकनीकी दस्तक

बेनामी ने कहा…

padhvaney kae thanks aatmsaat karlae sab to samsyaa hee khatam

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } ने कहा…

हकीकत बयाँ करती हुई नज्म

वर्षा ने कहा…

सचमुच
हम भी हिंदू कहां, वो भी मुसलमान कहां

roushan ने कहा…

कोई हिंदू कहाँ कोई मुसलमान कहाँ
सच कहा

ज़ाकिर हुसैन ने कहा…

शहरोज़ भाई! सच में एक आइना दिखाती रचना पेश की है आपने. ये हकीक़त है कि आज के दोर में न कोई हिन्दू रहा है न मुसलमान, सब शैतान (अपने को अपवाद बनाये लागों से क्षमा) हो गए हैं.
खैर उम्मीद रखियेगा कि जल्द ही इंसानियत फिर से सरसब्ज होगी.
आमीन

श्रद्धा जैन ने कहा…

bahut hi bhaavpurn gazal hai
thnx a lot for sharing

Science Bloggers Association ने कहा…

बहुत खूब भई, रचना पढ कर मन खुश हो गया। आभार।

RAJ SINH ने कहा…

शह्रोज भयी बहुत दिनोन के बाद आया आप्के ब्लोग पर .
यानी की पिछली बार के बाद बीच बीच मे झन्क लेने के बाद . उम्मीद थी कुछ नया मिल जाये शायद . निरशा ही हुयी . हिन्द के लिये आप जैसी पुर्क

इस्मत ज़ैदी ने कहा…

aap ke doosre blog bhi padhe ,bahut achchha likhte hain aap ,dil ke jazbaat ko bahut khhoobsoorat alfaz diye gaye hain.

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

आज तो मन्दिरो मस्जिद में लहू बहता है
पानीपत और पलासी के वो मैदान कहाँ
पहले इस मुल्क के बच्चों को खिलाओ खाना
फिर बताना उन्हें पैदा हुए भगवान कहाँ

bahut khoobsurat ghazal hai....aatmbodh karati hui.....badhai

shikha varshney ने कहा…

आपकी इस नज़्म की एक एक पंक्ति दिल की तह तक जाती है.....बेहद भावपूर्ण लेखन .

vimlesh brijwall ने कहा…

नया सीख लेने की हरदम ललक है।
कहीं पर जमीं तो कहीं पर फलक है।
मगर दूसरों की तरफ है निगाहें,
जो दर्पण को देखा तो खुद की झलक है।।

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