महिना हो आया.अब वक़्त ने मुहलत दी.यूं तंत्र ने मुझे रोकने की शपथ ले रखी थी.आज जनेयू के भाई रागिब के मेल ने इस पोस्ट के लिए विवश कर दिया.उन्होंने secularjnu का लिंक भेजा है.जब क्लीक किया तो इस नज़्म पर नज़र जा टिकी.भाई रागिब फोन पर अनुपलब्ध हैं अभी.वरना उन्हें मुबारकबाद ज़रूर देता.
बहरहाल इस नज़्म का लुत्फ़ आप ज़रूर लें.ये लुत्फ़ चिंतन तू की मांग करता है. -सं
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तू भी हिंदू है कहाँ, मैं भी मुसलमान कहाँ
राम के भक्त कहाँ, बन्दा-ए- रहमान कहाँ
तू भी हिंदू है कहाँ, मैं भी मुसलमान कहाँ
तेरे हाथों में भी त्रिशूल है गीता की जगह
मेरे हाथों में भी तलवार है कुरआन कहाँ
तू मुझे दोष दे, मैं तुझ पे लगाऊँ इल्जाम
ऐसे आलम में भला अम्न का इम्कान कहाँ
आज तो मन्दिरो मस्जिद में लहू बहता है
पानीपत और पलासी के वो मैदान कहाँ
कर्फ्यू शहर में आसानी से लग सकता है
सर छुपा लेने को फुटपाथ पे इंसान कहाँ
किसी मस्जिद का है गुम्बद, कि कलश मन्दिर का
इक थके-हारे परिंदे को ये पहचान कहाँ
पहले इस मुल्क के बच्चों को खिलाओ खाना
फिर बताना उन्हें पैदा हुए भगवान कहाँ
साभार: शकील हसन शम्सी
छैला संदु पर बनी फिल्म को लेकर लेखक-फिल्मकार में तकरार
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मंगल सिंह मुंडा बोले, बिना उनसे पूछे उनके उपन्यास पर बना दी
गई फिल्म, भेजेंगे लिगल नोटिस जबकि निर्माता और निर्देशक का
लिखित अनुम...
8 वर्ष पहले
24 टिप्पणियाँ:
behtareen nazm
बहुत खूब.गुरूपर्व की बधाई
सियासत नफ़रतों का ज़ख्म भरने ही नहीं देती
जहाँ भरने पे आता है तो मक्खी बैठ जाती है
आप की नजर यह मुन्ब्बर राणा साहब का शेर.
बहुत सुन्दर लिखा है आप ने
समाज के ठेकेदार सब अच्छी, भली और कीमती चीजों को कब्जा लेते हैं, धर्म को भी। और फिर उस का अपने लिए इस्तेमाल करते हैं। बहुत सच्ची और अच्छी रचना है।
एक बेहतरीन ग़ज़ल पढ़वाने के लिये हार्दिक आभार।
बहुत बढिया गजल प्रेषित की है।आभर।
बहुत खूब.....याद करने लायक
बहुत अच्छा...
इस दुनिया में तुम्हारे जैसे इंसान कहां...
वाकई बेहतरीन नज़्म है........
सौ फीसदी सही !
बहुत ही खूबसूरती से आपने बयां किया.....बहुत बहुत सुंदर...
बहुत खूब.
प्रेम करो सबसे, नफरत न करो किसी से.
बहुत सुन्दर नज़्म.. दिल को छू लेने वाली। बधाई इस सुन्दर गज़ल के लिए, बढ़िया होता आप हमें इस गज़ल को सुनवाते।
॥दस्तक॥
गीतों की महफिल
तकनीकी दस्तक
padhvaney kae thanks aatmsaat karlae sab to samsyaa hee khatam
हकीकत बयाँ करती हुई नज्म
सचमुच
हम भी हिंदू कहां, वो भी मुसलमान कहां
कोई हिंदू कहाँ कोई मुसलमान कहाँ
सच कहा
शहरोज़ भाई! सच में एक आइना दिखाती रचना पेश की है आपने. ये हकीक़त है कि आज के दोर में न कोई हिन्दू रहा है न मुसलमान, सब शैतान (अपने को अपवाद बनाये लागों से क्षमा) हो गए हैं.
खैर उम्मीद रखियेगा कि जल्द ही इंसानियत फिर से सरसब्ज होगी.
आमीन
bahut hi bhaavpurn gazal hai
thnx a lot for sharing
बहुत खूब भई, रचना पढ कर मन खुश हो गया। आभार।
शह्रोज भयी बहुत दिनोन के बाद आया आप्के ब्लोग पर .
यानी की पिछली बार के बाद बीच बीच मे झन्क लेने के बाद . उम्मीद थी कुछ नया मिल जाये शायद . निरशा ही हुयी . हिन्द के लिये आप जैसी पुर्क
aap ke doosre blog bhi padhe ,bahut achchha likhte hain aap ,dil ke jazbaat ko bahut khhoobsoorat alfaz diye gaye hain.
आज तो मन्दिरो मस्जिद में लहू बहता है
पानीपत और पलासी के वो मैदान कहाँ
पहले इस मुल्क के बच्चों को खिलाओ खाना
फिर बताना उन्हें पैदा हुए भगवान कहाँ
bahut khoobsurat ghazal hai....aatmbodh karati hui.....badhai
आपकी इस नज़्म की एक एक पंक्ति दिल की तह तक जाती है.....बेहद भावपूर्ण लेखन .
नया सीख लेने की हरदम ललक है।
कहीं पर जमीं तो कहीं पर फलक है।
मगर दूसरों की तरफ है निगाहें,
जो दर्पण को देखा तो खुद की झलक है।।
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