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संस्कृति के चार अध्याय जैसी अमर-कृति के रचयिता और अपने समय के चर्चित लेखक-कवि रामधारी सिंह दिनकर की इधर तीन पुस्तक पढने का सुयोग मिला.पुस्तकें हैं: स्वामी विवेकानंद, हे राम! और लोकदेव नेहरू.
मैं उन्हीं पुस्तकों के हवाले से आज बात करूंगा.उन्हों ने जो कल लिखा था, उसकी प्रसांगिकता आज भी उतनी ही है.आप लिखते हैं:
अब हम न वेदांती हैं, न हम पौराणिक या तांत्रिक रह गए हैं.अब तो हम मात्र छुआ -छूत पंथी-भर शेष रह गए हैं। हमारा धर्म सिमट कर रसोई में क़ैद हो गया है और मात्र रान्धने की हांडी हमारा भगवान् बन गई है तथा मज़हब यह विचार हो गया है कि हमें कोई छुए नहीं, क्योंकि हम पवित्र हैं.
ये बात सिर्फ़ सनातनियों पर ही लागू नहीं होती.इस्लाम और ईसाई जैसे और दीगर मज़हबों के माने वालों के यहाँ भी कमोबेश यही स्थिति है.हम धार्मिक रह ही नहीं गए हैं.गर धार्मिक हो जाते तो साम्प्रदायिकता का ख़ुद-बखुद लोप हो जाता.ज़ाती-धर्म के नाम पर बंट रहे समाज के लिए ज़रूरी है.लेकिन हम धर्मांध हो गए हैं.धर्म महज़ प्रदर्शन की चीज़ है.साम्प्रदायिक होने में धर्म की इतिश्री समझते हैं.साझे--सरोकार की बात आज बेईमानी लगती है.जबकि:
इस्लामी साधना के रहस्य को समझने के लिए परमहंस कुछ दिनों तक मुसलमान हो गए थे और ईसाईयत के मर्म को समझने के लिए थोड़े दिनों के वे ईसाई भी बन गए थे.महायोगी अरविन्द और महर्षि रमन भी धर्म के अनुष्ठानिक पक्ष को महत्त्व नहीं देते थे.इन दोनों महात्माओं के भक्त बहुत से ईसाई , पारसी और मुसलमान भी हुए हैं। किंतु किसी भी भक्त से उनहोंने यह नहीं कहा कि मोक्ष-लाभ के लिए हिंदू होना आवश्यक है।
हिंदू, मुसलमान या ईसाई होना धर्म का बाहरी रूप है। सच्चा धर्म वोह है जिसके नाम लेने पर हिंदू पहले अच्छा हिंदू और मुसलमान पहले अच्छा मुसलमान हो जाता है.जो धर्मांध बनने वाली किसी विचारधारा या धर्म की बात करते हैं वो दरअसल साम्प्रदायिकता के घोर प्रचारक और प्रसारक होते हैं.और ऐसे लोग हर समाज-समुदाय में आजकल बहुतायात से मिल जाते हैं.हमें उनसे होशियार रहने की ज़रूरत है।
सम्प्रदायवादी किसी अतीत के अवशेष हैं। वे न तो भूत में बसते हैं, न वर्तमान में, वे हवा में लटके हुए हैं.भारत हर आदमी को बर्दाश्त करता है, हर चीज़ को बर्दाश्त करता है, यहाँ तक कि पागलपन भी बर्दाश्त करता है, इसलिए सम्प्रवादी भी इस देश में हैं.मगर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उनकी विचारधारा खतरनाक है। यह विचारधारा घृणा से भरी हुई है .यह प्रवृति भारत के लिए अकल्याण कारी है.चाहे हिंदू साम्प्रदायिकता हो या मुस्लिम साम्प्रदायिकता या सिक्ख साम्प्रदायिकता......अगर ये कायम रही तो भारत की धज्जियां उड़ जायेंगी और वोह टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा।
हम त्रासद विभाजन पहले ही भोग चुके हैं.भाषा और जाती, धर्म के नाम पर रोज़ विभाजित हो रहे हैं.किसी को हम अपनी जाती के नाम पर जबतक पालते-पोसते रहते हैं वो हमें साम्प्रदायिक नहीं लगता लेकिन जब वो अपनी भाषा के नाम पर मुझ से ही झगड़ने लगता है तो हमें वो तुरंत ही साम्प्रदायिक लगने लगता है.हमें ऐसे चिन्हों को ख़ुद में भी टटोलना ज़रूरी है,जभी हम सुंदर-समाज की रचना कर सकते हैं.
हम चाहे किसी भी मज़हब के मानने वाले हों, हम समान रूप से भारत-माता की संतान हैं.साप्रदायिकता को संकीर्णता को हम बढ़ावा नहीं दे सकते क्योंकि जिस किसी देश के नागरिक मन, वचन या कर्म से संकीर्ण हैं , वोह देश कभी भी ऊपर नहीं उठेगा.
3 टिप्पणियाँ:
जी बिलकुल सच -दिनकर की सोच एक पढ़े लिखे विद्वान् की सोच है ! मगर पोंगापंथी इन विचारों को समझ नहीं पाते या जानबूझ कर समझना नहीं चाहते ! फिर उनका धंधा बंद नहीं हो जाएगा -वे बेकार नहीं हो जायेगें ?
दिनकर के बहाने आपका यह विमर्श अच्छा लगा !
बहुत अच्छी और सही पोस्ट है दिनकर की इन पँक्तिओं को लिख कर आपने सभी को सही राह दिखाई है। मजह्ब से उपर उठ कर सोचने का समय है शुभकामनायें
शहरोज़ जी ! आज आपके ब्लॉग पर आना हुआ..सभी रचनाएँ तो नहीं पढ़ पाई पर जितना भी पढ़ा यकीन मानिये एक बार फिर गर्व हुआ अपने भारतीय होने पर.आपके विचारों पर नाज़ है.काश हर भारतवासी की यही सोच होती.और आपकी नज़्म ने तो आँखें नाम कर दी.
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