तेरी शर्ट हमसे ज्यादा सफ़ेद क्यों की तर्ज़ पर मीनारों और गुम्बदों को ऊँचा करने और सड़कों पर नमाज़ व आरती करने की आज होड़ लगी है.धार्मिक होने का प्रदर्शन खूब हो रहा है जबकि ऐसी धार्मिकता हमें धर्मान्धता की ओर घसीट ले जा रही है.जो खतरनाक है.देश की गंगा-जमनी संस्कृति को इससे काफी चोट पहुँच रही है.सर्व-धर्म समभाव हमारी पहचान है.सदियों पुरानी इस रिवायत को हम यूँही खो जाने नहीं देंगे. इस मंच के मार्फ़त हमारा मकसद परस्पर एकता के समान बिदुओं पर विचार करना है.अपेक्षित सहयोग मिलेगा, विशवास है. मतभेदों का भी यहाँ स्वागत है.वाद-ववाद से ही तो संवाद बनता है.





शमा-ए-हरम हो या दिया सोमनाथ का !

on शनिवार, 7 अगस्त 2010

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संवेदना के स्वर कितने आंतरिक 

 

 

इस मंच से ज़रा लग हट कर कुछ बात कहने की धृष्टता  कर रहा हूँ, क्षमा करेंगे.किंचित सफल रहा तो यूँ साझा-सरोकार के पग बढे ,समझूंगा.उद्दिग्नता रही है, द्वन्द रहा है.पढता रहा हूँ कहीं कुछ लिख भी आया.यानी टिपया आया.लेकिन आज संवेदना के स्वर की पोस्ट हिन्दू मुस्लिम भाई-भाई  की इन पंक्तियों ने झिंझोड़ दिया.

 

 

उन्होंने लिखा है कि मनीषियों का तर्क है कि "यह मत भूलिए कि हम हिन्दू हैं और हम हर धर्म का आदर करते हैं और यह सहिष्णुता ही हमारी पहचान है जो हमें औरों से अलग पहचान देती है!"

यही मनोविज्ञान हमारी समस्या है,..हिन्दू-मुस्लिम एकता का फलसफा समझाने वाले अंत में अपनें तथाकथित धर्म की विशिष्टता बताने का मोह नहीं छोड़ पाते.

 

 

पढ़ कर क्या हुआ कि लिखता गया.संभवत इस द्वन्द से मुक्ति का समय था यह.

मैं  हमेशा विश्व के ख्यात चिन्तक विवेकानंद  की बात दुहराता रहा हूँ कि जो दूसरों से घृणा करता है, वह खुद पतीत हुए बिना नहीं रहता.

 

लेकिन साथियो !! इसे समझे कौन !!

विवेकानंद आगे लिखते हैं कि धार्मिक पुनरुथान से गौरव भी है और खतरा भी, क्योंकि पुनरुथान कभी कभी धर्मान्धता को जन्म देता है.

 

और आज हर कहीं धर्म के नाम पर धर्मान्धता का शोर है और इस शोर में दोनों ओर  का इंसान घुट रहा है.

 

 

ब्लॉग जगत में विगत दो सालों से एक धर्म विशेष के लोगों या उनके धर्म के विरुद्ध खूब विषवमन  होता रहा है.एक बंधु तो बजाप्ता इस शुभ कार्य के लिए लोगों से चंदा तक मांगते हैं

लेकिन  इनके विरुद्ध कहीं कोई विरोध के स्वर सुनाई नहीं पड़े.कहीं किसी उदारमना प्रबुद्ध ने कोई पोस्ट नहीं लिखी.

लेकिन इन दिनों वह तबका जो कल तक खामोश था उन्हीं के लहजे में जवाब देने लगा तो त्राहिमाम!! त्राहिमाम !!!

 

मैं ऐसी धर्मान्धता के जिद तक विरोधी हूँ.

 

एक विशेष धर्म को ही या एक विशेष मानसिकता से संचालित एक संस्था के दर्शन को ही गर देश मान लिया जाएगा तो यह फासीवादी प्रव्रृति  है.और इसका विरोध खुलकर कोई नहीं कर रहा है.

 

हाँ ऐसी ही फितरत के साथ आज इस्लाम के स्वयंभू ठीकेदार पैदा हो गये हैं तो हर कहीं  सोग और विरोध का हंगामा है बरपा !!

 

 

ऐसे लोगों के लिए मैं कहूँगा:

[हबीब जालिब के शब्दों में]

 

 

ख़तरा है बटमारों को

मग़रिब के बाज़ारों को

चोरों को,मक्कारों को

खतरे में इस्लाम नहीं

 

और हाँ संघ के लोगों को इस बात पर भी आपत्ति रही है कि मुसलमानों की इतनी आबादी है उन्हें अल्पसंख्यक क्यों कहा जाए.

ठीक है भाइयो मत कहो लेकिन जब संघ की राजीनीतिक इकाई भाजपा की सरकार थी तो संशोधन कर इस शब्द को क्यों नहीं हटा दिया गया.

और आज भी भाजपा में अल्पसंख्यक सेल क्यों है ! क्यों नहीं उसे भंग कर दिया जाता !

 

लेकिन साथियो सियासत की बातों में मत पड़ो यह सियासी लोग हैं.

जब काग्रेस कुछ करती है तो उसे तुष्टिकरण कहा जाता है और वही कम भाजपा करती है तो देश हित!!

भाजपा ने हज में मुसलमानों को सुविधा दी तब तुष्टिकरण नहीं हुआ.ऐसी मिसालें कई हैं.

 

यह सच है कि यहाँ हिन्दुओं की आबादी बहुसंख्यक है..लेकिन देश का संविधान सेकुलर है समाजवादी है, अब जैसा भी है.

और हमारे साथियो को यह ध्यान रखना चाहिए, जैसा सी ई जेड ने कहा  था:

 

मनुष्य समाज का जो क़बीला ,जो जाति जो धर्म सत्ता में आ जाता है वह समाज की श्रेष्ठता के पैमाने अपनी श्रेष्ठता के आधार पर ही बना देता है [यह श्रेष्ठता होती भी है या नहीं यह अलग प्रश्न है] यानी सत्ता आये हुए की शक्ती ही व्यवस्था और कानून हो जाया करती है.

 

 

सशंकित होना क्या जायज़ नहीं कि क्या वास्तव में आज ऐसा हो रहा है !!

 

गर हो रहा है तो मुखर विरोध होना चाहिए. और जो ऐसा समझ रहे है, इसके खतरे  से वाकिफ हैं, विरोध कर रहे हैं.हां !स्वर मद्धिम अवश्य है ,लेकिन एक जुटता है.

 

यदि नहीं हो रहा है तो आओ साथियो मीर के इस शेर को याद करो:

 

उसी के फ़रोग-ए-हुस्न से झमके है सब में नूर

शमा-ए-हरम हो या दिया सोमनाथ का !

 

 

 

 

संवेदना के स्वर की पोस्ट हिन्दू मुस्लिम भाई-भाई

 

 

संस्कृत शब्द है नमाज़

on गुरुवार, 11 मार्च 2010

नमाज़ से  अखंड भारत का प्रमाण







ढेरों मुल्ला उठ खड़े हो सकते हैं कि मैं क्या बकवास कर रहा हूँ.  इस जानकारी ने अद्भुत ढंग से चकित किया.निसंदेह आप भी हुए होंगे.वैदिक शब्द है नमाज़ .है न चकित करने वाली बात.अरबी में नमाज़ के लिए सलात या सलाः का इस्तेमाल होता है. कुर'आन में भी यही शब्द आया है.क्यों कि जब किसी मस्जिद में मुआज्ज़िन अज़ान पुकार रहा होता है तो कहता है: हय्या अलस्स  सलात!  यानी आओ नमाज़ की तरफ! इस्लाम के जानकारों यानी आलिमों , धर्म-विद्वानों  से जब पूछा गया कि नमाज़ शब्द कहाँ से आया. उन्हों ने बताया कि यह फ़ारसी का शब्द हो सकता है.लेकिन जब फ़ारसी की तरफ निगाह दौड़ाई तो जानकार हैरत हुई कि वहाँ इस शब्द का मूल ही नहीं है.यानी जिस तरह संस्कृत में हर शब्द की एक मूल धातु होती है, ऐसा ही फ़ारसी या अरबी में होती है.फ़ारसी में मूल को मसदर कहते हैं.अगर मान  लें कि नमाज़ का मसदर नम हो तो नम का अर्थ होता है गीला या भीगा हुआ.आपने मुहावरा सुना होगा नम आँखें.इस से नमाज़ का अर्थ नहीं निकलता.
विश्व की एक मात्र भाषा है संस्कृत जहां नम शब्द से नमाज़ का अर्थ निकलता है.नम संस्कृत में सर झुकाने को कहते हैं.और अज वैदिक शब्द है जिसका अर्थ है अजन्मा यानी जिसने दूसरे को जन्म दिया किन्तु स्वयं अजन्मा है.इस प्रकार नम+अज के संधि से नमाज़ बना जिसका अर्थ हुआ अजन्मे को नमन.इस तरह इस शब्द की उत्पत्ति हुई.इरान जाकर फ़ारसी में यह नमाज़ हो गया.ध्यान रहे कि इस्लाम का परिचय भारत में पैगम्बर हज़रत मोहम्मद के जीवनकाल में ही हो गया था.अरब के मुस्लिम कारोबारियों का दक्षिण भारत में आना-जाना शुरू हो गया था.जबकि इरान में इस्लाम बहुत बाद में ख़लीफ़ा उमर के समय पहुंचा था.
भारत के शुरूआती नव-मुस्लिमों ने सलात को नमाज कहना शुरू कर दिया .यह सातवीं सदी का समय है.भारत यानी तब के अखंड भारत से मेरा आशय है.क्योंकि सिर्फ पाकिस्तान, बँगला देश ,नेपाल या श्री लंका में ही इस शब्द का चलन नहीं है.बल्कि पश्चिम में अफगानिस्तान, इरान, मध्य एशियाई मुल्कों तज़ाकिस्तान. कज़ाकिस्तान आदी और पूर्व में म्यांमार , इंडोनेशिया,मलेशिया,थाईलैंड और कोरिया वगैरह  में भी सलात की बजाय नमाज़ का प्रचलन है.इन सभी देशों का सम्बन्ध भारत से होना बताया जाता है.

इस प्रकार नमाज़ से भी अखंड भारत का प्रमाण साबित हो जाता है.

होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह

on शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010



कहा जाता है कि हज़रत मोहम्मद [स] को आज के ही दिन  लगभग साढ़े चौदा सौ साल पहले अल्लाह ने पूरे संसार के लिए रहमत बनाकर भेजा था.इस दिन को लोग ईद-मिलादुन-नबी कहते हैं. इस रहमत का ही नतीजा है कि हिन्दुस्तान का एक सूफी-संत बुल्ले-शाह पंजाब में जाकर होली खेलता है और नाम अल्लाह और उसके रसूल का लेता है.यही हमारी सदियों पुरानी साझी-संस्कृति है.फेस बुक की दीवार पर पत्रकार अस्मा सलीम ने इसे उर्दू में चस्पां किया है.उनके आभार के साथ हम यहाँ मूल के साथ देवनागरी में लिप्यान्तरण दे रहे हैं.






होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह

नाम नबी की रतन चढी, बूँद पडी इल्लल्लाह
रंग-रंगीली उही खिलावे, जो सखी होवे फ़ना-फी-अल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह

अलस्तु बिरब्बिकुम पीतम बोले, सभ सखियाँ ने घूंघट खोले
क़ालू बला ही यूँ कर बोले, ला-इलाहा-इल्लल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह

नह्नो-अकरब की बंसी बजायी, मन अरफ़ा नफ्सहू की कूक सुनायी
फसुम-वजहिल्लाह की धूम मचाई, विच दरबार रसूल-अल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह

हाथ जोड़ कर पाऊँ पडूँगी आजिज़ होंकर बिनी करुँगी
झगडा कर भर झोली लूंगी, नूर मोहम्मद सल्लल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह

फ़ज अज्कुरनी होरी बताऊँ , वाश्करुली पीया को रिझाऊं
ऐसे पिया के मैं बल जाऊं, कैसा पिया सुब्हान-अल्लाह 
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह

सिबगतुल्लाह की भर पिचकारी, अल्लाहुस-समद पिया मुंह पर मारी
नूर नबी [स] डा हक से जारी, नूर मोहम्मद सल्लल्लाह
बुला शाह दी धूम मची है, ला-इलाहा-इल्लल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह

खान शास्त्री का राष्ट्रीय साम्प्रदायिक सौहार्द्र

on सोमवार, 25 जनवरी 2010

जब दिल में हो महब्बत , रूह लबरेज़ जज़्बाए-इंसानियत से .तो आपका कारवां चलता ही रहेगा , बढ़ता ही रहेगा.हम बात कर रहे हैं,58 वर्षीय डॉ.मोहम्मद हनीफ खान शास्त्री  की जो  संस्कृत के माने हुए विद्वान हैं, उनकी सर्वाधिक प्रसिध्द पुस्तकें हैं: मोहनगीता, गीता और कुरान में सामंजस्य, वेद और कुरान से महामंत्र गायत्री और सुरा फातिहा, वेदों में मानवाधिकार और मेलजोल।  1991 में महामंत्र गायत्री और सुरा फातिहा का अर्थ प्रयोग एवं महात्म्य की दृष्टि से तुलनात्मक अध्ययन के लिए पीएचडी की उपाधि आपको  प्रदान की गई थी। 

 डॉ. शास्त्री को  मानवाधिकार और समाज कल्याण केन्द्र, राजस्थान के साथ  वर्ष 2009 के राष्ट्रीय साम्प्रदायिक सौहार्द्र पुरस्कार के लिए चुना गया है। उपराष्ट्रपति की अध्यक्षता में जूरी ने साम्प्रदायिक सौहार्द्र बढ़ाने में उनके योगदान को देखते हुए उनका का चयन किया है।

राष्ट्रीय साम्प्रदायिक सौहार्द्र पुरस्कारों की स्थापना राष्ट्रीय साम्प्रदायिक सौहार्द्र संस्थान जो भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा साम्प्रदायिक  सौहार्द्र बढाने और राष्ट्रीयता के लिए स्थापित एक स्वायत्तशासी संगठन है, के द्वारा 1966 में की गई थी। 


शास्स्री जी को हार्दिक मुबारक बाद!!



रिजवाना : संस्कृत की नयी इबारत

on गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

रिजवाना परवीन का साधिकार संस्कृत बोलना, इसे बस कर्मकांड की भाषा में ढाल चुके आभामंडित विद्वानों के लिए भी चुनौती है। यह संस्कृत शिक्षिका भाषायी संगम की, इसलिए साझा विरासत और साझा देश प्रेम की भी अनूठी मिसाल है। संस्कृत के बहुत जटिल व्याकरणीय संरचना और दो से तीन पदों तक की लंबाई के एक वाक्य वाले श्लोकों का मानक उच्चारण के साथ उनका सस्वर पाठ चकित कर देता है।



 




रास्ते भले अलग-अलग हों, मंजिल नहीं। 'रबबुल आलमीन'-[खुदा पूरी दुनिया का है] और ईश्वर भी एक है जिसे सभी मतावलंबी अलग-अलग रूप में व्याख्यायित करते है-यं शैवा समुपासते..।
ऐसे लोग भी है जो मानते है कि संस्कृत में इबादत कर लेने से खुदा और अरबी में प्रार्थना कर लेने से भगवान नाराज नहीं होगा। भाषाओं को बहुत कडे़ मजहबी यकीन के खांचों में न बांटकर उसे सभ्यता और संस्कृति [धर्म नहीं] की नजर से बरतने के कुछ साहसी मिजाजों का नुमाइंदा बन चुकी है, जहानाबाद की रिजवाना परवीन।
मध्य विद्यालय काको में पढ़ा रहीं रिजवाना परवीन का साधिकार संस्कृत बोलना, इसे बस कर्मकांड की भाषा में ढाल चुके आभामंडित विद्वानों के लिए भी चुनौती है। यह संस्कृत शिक्षिका भाषायी संगम की, इसलिए साझा विरासत और साझा देश प्रेम की भी अनूठी मिसाल है। संस्कृत के बहुत जटिल व्याकरणीय संरचना और दो से तीन पदों तक की लंबाई के एक वाक्य वाले श्लोकों का मानक उच्चारण के साथ उनका सस्वर पाठ चकित कर देता है।
1978 में संस्कृत शिक्षक के रूप में अपनी नियुक्ति काल से ही रिजवाना ने इस भाषा के अध्ययन और अध्यापन की अलख जगा रखी है। इस भाषा का सांस्कृतिक असर उनके परिवार पर भी दिखता है। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ रहे उनके बच्चे भी इस भाषा के अच्छे जानकार हैं।
एक पारंपरिक मुसलमान परिवार की रिजवाना का लगभग चार दशक पूर्व संस्कृत में शिक्षा हासिल करना किसी क्रांतिकारी कदम से कम नहीं था। ग्रामीण परिवेश में पली-बढ़ी रिजवाना ने 1971 में पटना के एक बोर्डिग स्कूल में दाखिला लेकर तो सबको चौंका ही दिया।
उन्होंने पटना स्थित एक स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उ‌र्त्तीण की। इस परीक्षा में संस्कृत के प्रति उनके स्वाभाविक लगाव के कारण सर्वाधिक नम्बर आये। परंपरावादियों को अभी और चौंकना था। स्कूल में ही वे स्काउट्स एवं गाइड्स में भर्ती हों गयी। उन्होंने यहां भी अपनी प्रतिभा बिखेरी।
रिजवाना को स्काउट्स में उत्कृष्ट कार्यो के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति वी. बी. गिरी ने प्रमाण पत्र देकर पुरस्कृत भी किया।
संस्कृत भाषा से अपने लगाव का श्रेय वे स्थानीय नर्स ताजमणि को देती हैं। उन्होंने बताया कि उनकी ही प्रेरणा से वे बोर्डिग स्कूल में भी भर्ती हुयीं। ताजमणि ने ही उनके पिता को उन्हें आगे की शिक्षा के लिए प्रेरित किया। रिजवाना बताती हैं कि 1973 में संस्कृत विषय के साथ मैट्रिक पास करने के बाद उनका इस भाषा के प्रति लगाव बढ़ता ही गया।
उन्होंने सोचा कि क्यों न इस सुन्दर भाषा से अन्य लोगों को परिचित कराया जाये। उन्होंने बताया कि इसी उद्देश्य से उन्होंने टीचर्स ट्रेनिंग की तथा संस्कृत शिक्षक के रूप में अपने कैरियर को आयाम दिया।
चलो रोते हुए बच्चों को हंसाया जाये-उन्होंने बस एक चीज पकड़ी है और सारे मजहब इसकी ताईद हैं- आदमीयत, दया-करुणा और प्रेम। इंसानियत के इन्हीं घटकों को लेकर बना है उनका व्यक्तित्व। वह गरीब व अनाथ बच्चियों को स्कूली किताब और जरूरी कपड़े तक मुहैया कराती हैं। चार अनाथ बच्चे तो बस उनकी ही मुहब्बत पर पल रहे है।



 जागरण में जहानाबाद [मध्य बिहार से] शशिकांत 

काश मिले मंदिर में अल्लाह मस्जिद में भगवान मिले.

on मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

*
अल्लाह के लिए न तुम भगवान के लिए

लड़ना है तो लड़ो सदा इन्सान के लिए
हर धर्म है महान हर मज़हब में बड़प्पन
लेकिन नहीं है अर्थ कुछ शैतान के लिए

अपना ये घर संवारो मगर ध्यान तुम रखो
हम वक्त कुछ निकालें इस जहान के लिए

*

सुबह मोहब्बत शाम महब्बत
अपना तो है काम महब्बत
हम तो करते हैं दोनों से
अल्ला हो या राम महब्बत

*
ऐसा कोई जहान मिले
हर चहरे पर मुस्कान मिले
काश मिले मंदिर में अल्लाह
मस्जिद में भगवान मिले.

*
और लगे हाथ ये दो शेर भी देख लें...


लहलहाती हुई जो फसल देखता हूँ
इसे मै किसी की फज़ल देखता हूँ
ये न उर्दू की है और न हिन्दवी की
ग़ज़ल को मै केवल ग़ज़ल देखता हूँ...................................गिरीश पंकज





कवि-परिचय
शुरू से ही साहित्य और कला-संस्कृति के लिए खून-ऐ-जिगर करने वाले गिरीशजी ने आख़िर उस पेशे से मुक्ति पा ही ली जिसे पत्रकारिता कहते हैं.भला, आप जैसा संवेदनशील और विवेकी शायर-कवि, लेखक-संपादक, समीक्षक-व्यंग्यकार वहाँ रह भी कैसे सकता है.अखबार में रह कर भी आपने ज़मीर से समझौते कभी नहीं किए.और अपनी प्रतिबद्धता बरक़रार रखी.छत्तीसगढ़ के मूल निवासी पंकज जी फिलहाल साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, के सदस्य और छत्तीसगढ़ राष्ट्रभाषा प्रचार समिति,के प्रांतीय अध्यक्ष हैं। रायपुर में रहते हुए भारतीय एवं विश्व साहित्य की सद्भावना दर्पण जैसी महत्वपूर्ण अनुवाद-पत्रिका और बच्चों के लिए बालहित का सम्पादन-संचालन बरसों से कर रहे हैं
अब तक आपके
३ उपन्यास- मिठलबरा की आत्मकथा, माफिया, पालीवुड की अप्सरा , 8 व्यंग्य-संग्रह- ट्यूशन शरणम गच्छामि, ईमानदारों की तलाश, भ्रष्टाचार विकास प्राधिकरण, मंत्री को जुकाम, नेताजी बाथरूम में, मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाये, मूर्ति की एडवांस बुकिंग एवं हिट होने के फार्मूले, २ ग़ज़ल संग्रह- आंखों का मधुमास, यादों में रहता है कोई सहित 31 पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है.-सं.

भगवान् की हांडी!

on शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009






संस्कृति
के चार अध्याय जैसी अमर-कृति के रचयिता और अपने समय के चर्चित लेखक-कवि रामधारी सिंह दिनकर की इधर तीन पुस्तक पढने का सुयोग मिला.पुस्तकें हैं: स्वामी विवेकानंद, हे राम! और लोकदेव नेहरू.
मैं उन्हीं पुस्तकों के हवाले से आज बात करूंगा.उन्हों ने जो कल लिखा था, उसकी प्रसांगिकता आज भी उतनी ही है.आप लिखते हैं:
अब हम वेदांती हैं, हम पौराणिक या तांत्रिक रह गए हैं.अब तो हम मात्र छुआ -छूत पंथी-भर शेष रह गए हैंहमारा धर्म सिमट कर रसोई में क़ैद हो गया है और मात्र रान्धने की हांडी हमारा भगवान् बन गई है तथा मज़हब यह विचार हो गया है कि हमें कोई छुए नहीं, क्योंकि हम पवित्र हैं.

ये बात सिर्फ़ सनातनियों पर ही लागू नहीं होती.इस्लाम और ईसाई जैसे और दीगर मज़हबों के माने वालों के यहाँ भी कमोबेश यही स्थिति है.हम धार्मिक रह ही नहीं गए हैं.गर धार्मिक हो जाते तो साम्प्रदायिकता का ख़ुद-बखुद लोप हो जाता.ज़ाती-धर्म के नाम पर बंट रहे समाज के लिए ज़रूरी है.लेकिन हम धर्मांध हो गए हैं.धर्म महज़ प्रदर्शन की चीज़ है.साम्प्रदायिक होने में धर्म की इतिश्री समझते हैं.साझे--सरोकार की बात आज बेईमानी लगती है.जबकि:
इस्लामी साधना के रहस्य को समझने के लिए परमहंस कुछ दिनों तक मुसलमान हो गए थे और ईसाईयत के मर्म को समझने के लिए थोड़े दिनों के वे ईसाई भी बन गए थे.महायोगी अरविन्द और महर्षि रमन भी धर्म के अनुष्ठानिक पक्ष को महत्त्व नहीं देते थे.इन दोनों महात्माओं के भक्त बहुत से ईसाई , पारसी और मुसलमान भी हुए हैंकिंतु किसी भी भक्त से उनहोंने यह नहीं कहा कि मोक्ष-लाभ के लिए हिंदू होना आवश्यक है

हिंदू, मुसलमान या ईसाई होना धर्म का बाहरी रूप है। सच्चा धर्म वोह है जिसके नाम लेने पर हिंदू पहले अच्छा हिंदू और मुसलमान पहले अच्छा मुसलमान हो जाता है.जो धर्मांध बनने वाली किसी विचारधारा या धर्म की बात करते हैं वो दरअसल साम्प्रदायिकता के घोर प्रचारक और प्रसारक होते हैं.और ऐसे लोग हर समाज-समुदाय में आजकल बहुतायात से मिल जाते हैं.हमें उनसे होशियार रहने की ज़रूरत है।

सम्प्रदायवादी किसी अतीत के अवशेष हैं वे तो भूत में बसते हैं, वर्तमान में, वे हवा में लटके हुए हैं.भारत हर आदमी को बर्दाश्त करता है, हर चीज़ को बर्दाश्त करता है, यहाँ तक कि पागलपन भी बर्दाश्त करता है, इसलिए सम्प्रवादी भी इस देश में हैं.मगर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उनकी विचारधारा खतरनाक है यह विचारधारा घृणा से भरी हुई है .यह प्रवृति भारत के लिए अकल्याण कारी है.चाहे हिंदू साम्प्रदायिकता हो या मुस्लिम साम्प्रदायिकता या सिक्ख साम्प्रदायिकता......अगर ये कायम रही तो भारत की धज्जियां उड़ जायेंगी और वोह टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा

हम त्रासद विभाजन पहले ही भोग चुके हैं.भाषा और जाती, धर्म के नाम पर रोज़ विभाजित हो रहे हैं.किसी को हम अपनी जाती के नाम पर जबतक पालते-पोसते रहते हैं वो हमें साम्प्रदायिक नहीं लगता लेकिन जब वो अपनी भाषा के नाम पर मुझ से ही झगड़ने लगता है तो हमें वो तुरंत ही साम्प्रदायिक लगने लगता है.हमें ऐसे चिन्हों को ख़ुद में भी टटोलना ज़रूरी है,जभी हम सुंदर-समाज की रचना कर सकते हैं.

हम चाहे किसी भी मज़हब के मानने वाले हों, हम समान रूप से भारत-माता की संतान हैं.साप्रदायिकता को संकीर्णता को हम बढ़ावा नहीं दे सकते क्योंकि जिस किसी देश के नागरिक मन, वचन या कर्म से संकीर्ण हैं , वोह देश कभी भी ऊपर नहीं उठेगा.

तू भी हिंदू है कहाँ, मैं भी मुसलमान कहाँ

on बुधवार, 12 नवंबर 2008

महिना हो आया.अब वक़्त ने मुहलत दी.यूं तंत्र ने मुझे रोकने की शपथ ले रखी थी.आज जनेयू के भाई रागिब के मेल ने इस पोस्ट के लिए विवश कर दिया.उन्होंने secularjnu का लिंक भेजा है.जब क्लीक किया तो इस नज़्म पर नज़र जा टिकी.भाई रागिब फोन पर अनुपलब्ध हैं अभी.वरना उन्हें मुबारकबाद ज़रूर देता.
बहरहाल इस नज़्म का लुत्फ़ आप ज़रूर लें.ये लुत्फ़ चिंतन तू की मांग करता है. -
सं
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तू भी हिंदू है कहाँ, मैं भी मुसलमान कहाँ


राम के भक्त कहाँ, बन्दा-ए- रहमान कहाँ
तू भी हिंदू है कहाँ, मैं भी मुसलमान कहाँ

तेरे हाथों में भी त्रिशूल है गीता की जगह
मेरे हाथों में भी तलवार है कुरआन कहाँ

तू मुझे दोष दे, मैं तुझ पे लगाऊँ इल्जाम
ऐसे आलम में भला अम्न का इम्कान कहाँ

आज तो मन्दिरो मस्जिद में लहू बहता है
पानीपत और पलासी के वो मैदान कहाँ

कर्फ्यू शहर में आसानी से लग सकता है
सर छुपा लेने को फुटपाथ पे इंसान कहाँ

किसी मस्जिद का है गुम्बद, कि कलश मन्दिर का
इक थके-हारे परिंदे को ये पहचान कहाँ

पहले इस मुल्क के बच्चों को खिलाओ खाना
फिर बताना उन्हें पैदा हुए भगवान कहाँ

साभार: शकील हसन शम्सी
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